Saturday , 30 November 2024

बूढ़े, अपाहिज और अशक्त हो चुके रिटायर्ड मेजर का मर जाना ही उचित था, पढ़ें पूरी कहानी

“निस्तब्धता”

 

बूढ़े, अपाहिज और अशक्त हो चुके रिटायर्ड मेजर का मर जाना ही उचित था

 

बेटों ने चलने फिरने और बोलने में असमर्थ अपने पापा रिटायर्ड मेजर को अस्पताल से छुट्टी मिलते ही घर के एक कमरे में फर्श पर गद्दा लगा दिया गया और नेपाली नौकर को कहा, “इनका पूरा ख्याल रखना। हमें कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए।”

छोटे बेटे की नई-नई शादी हुई थी। उसने हनीमून व गर्मियाँ बिताने के लिए स्विट्जरलैंड जाने का प्रोग्राम बनाया और चला गया। बाद में दूसरे बेटे ने कनाडा एवं यू एस में और तीसरे ने रूस में छुट्टियाँ व्यतीत करने के प्रोग्राम बना कर निकल गए। जाते-जाते नौकर को एक फोन देते हुए चेतावनी दी, “हमारी दो माह के बाद वापसी होगी। तुम पापा का पूरा ख्याल रखना, समय पर खाना, दूध और दवाएँ देना। पापा को तनिक भी परेशानी नहीं होनी चाहिए।”

 

नौकर ने सहज सहमति दे दी और वे सभी चले गए। वे जहाँ भी जाते, आवश्यकता पड़ने पर हर जगह अपना परिचय मेजर के बेटे होने से शुरु करते और अपने पापा के साहस की कहानियाँ सुनाते। इधर बूढ़ा अपाहिज पिता अकेला घर के कमरे में लेटा साँसे लेता रहा। जजवह ना चल सकता था। ना स्वयं से कुछ माँग सकता था। नौकर 24 घण्टों उनके पास ही रहता और समय से भोजन, पानी, दूध, दवा आदि देता रहता। एक महीना बीत गया। इस बीच नौकर के पास पापा का हाल जानने के लिये किसी बेटे का कोई फोन नहीं आया। अपनी जिम्मेदारियों से बचने व छुट्टियों के खराब होने के डर से सभी स्वयं को छोड़कर शेष दोनों भाइयों पर आश्रित बने रहे।

 

 

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एक दिन नौकर फोन घर पर ही छोड़ कमरे में ताला लगाकर बाजार से दूध लेने गया तो उसका एक्सीडेंट हो गया। लोगों ने उसे हॉस्पिटल पहुँचाया किन्तु वह कोमा में चला गया। नौकर कोमा से होश में ना आ सका और एक दिन चल बसा। उसके पास कोई वस्तु बरामद नहीं हुई थी। (फोन घर पर रख दिया था और एक्सीडेंट के समय चाभी शायद कहीं गुम हो गयी थी) अतः लावारिस मान कर प्रशासन ने उसका अंतिम संस्कार कर दिया। बेटों ने नौकर को सिर्फ पिता के कमरे की चाबी दी थी। बाकी सारे घर को ताले लगाकर चाबियाँ साथ ले गए थे। प्रतिदिन की भाँति उस दिन भी नौकर उस कमरे को ताला लगाकर चाबी साथ लेकर गया था ताकि उसकी अनुपस्थिति में कोई घर मे घुस ना सके। और फिर वह अभी वापस आ ही जाएगा। अब बूढ़ा रिटायर्ड मेजर जनरल कमरे में बन्द हो चुका था। वह चल फिर भी नहीं सकता था। किसी को आवाज नहीं दे सकता था। अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जब सबसे पहले पहला बेटा वापस आया तो घर पर ताला बंद पाकर नौकर को फोन लगाया। लम्बे समय से रिचार्ज न होने के कारण सिम डिएक्टिवेट हो गया था शायद इसलिए फोन नहीं लगा। दूसरे भाइयों से बात करके जानना चाहा कि नौकर से उनकी लास्ट बात कब हुई थी। दोनों ने कोई बात न होने की बात बताई। पड़ोसियों ने बताया कि उन्होंने नौकर को बहुत दिनों से बाहर निकलते या आते जाते नहीं देखा है। हार मान कर जब ताला तोड़कर कमरा खोला गया तो …

 

पूरा कमरा हल्की बदबू से भरा हुआ था। खिड़की दरवाजे सब बन्द थे। एसी चल रहा था अतः कमरे में ठंडक थी। फर्श पर पड़े गद्दे पर एक कंकाल पड़ा हुआ था जिसके गले तक चादर पड़ी हुई थी। उस कंकाल के शरीर में सेना की वर्दी थी जो चादर से बाहर निकली बाहों में दिख रही थी। कमरे में निस्तब्धता छाई हुई थी।

 

यह कहानी हमें बता रही है कि किस तरह अपनी संतान के लिए नेकी और बुराई की परवाह किए बगैर हम सब उनका भविष्य संभालने के लिए तन, मन, धन खपाते हैं और ज्यादा से ज्यादा दौलत-जायदादें बनाकर उनका भविष्य की पीढ़ियों को आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने की कोशिश करते हैं। ऐसा करते समय यह सोचते रहते हैं कि यह औलाद कल बुढ़ापे में मेरी देखभाल करेगी।
बेहतरीन स्कूलों में भौतिक शिक्षा दिलवाने की आपाधापी में हम ये भूल जाते हैं कि जीवन उपयोगी नैतिक मूल्यों, मानवतायुक्त संस्कारों, धार्मिक विचारों की शिक्षा देने से ही मानव का पूर्ण विकास संभव होता है। नैतिक, सामाजिक, धार्मिक व मानवीय शिक्षा को हम समय की बर्बादी समझते हैं।

यदि ऐसा कहा जाय कि बूढ़े, अपाहिज और अशक्त हो चुके रिटायर्ड मेजर का मर जाना ही उचित था। मानते हैं … किंतु क्या ऐसी मृत्यु… न..न…न!

 

साभार – विशाल सिंह

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