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लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देने की घोषणा, क्या बोले पीएम नरेंद्र मोदी

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं देश के पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करने का आज एलान कर दिया गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आधिकारिक सोशल मीडिया साइट ‘​एक्स’ पर ट्वीट कर इसकी जानकारी दी है। पीएम मोदी ने इसकी घोषणा करते हुए लिखा कि, “मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि लालकृष्ण आडवाणी जी को भारत रत्न से सम्मानित किया जाएगा। मैंने भी उनसे बात की और इस सम्मान से सम्मानित होने पर उन्हें बधाई दी है।”

Announcement of award of Bharat Ratna to Lal Krishna Advani, what did PM Narendra Modi say

 

 

 

इससे पूर्व करीब 10 दिन पहले ही 23 जनवरी को ​बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का एलान किया गया था। केंद्र सरकार किसी एक साल में अधिकतम तीन लोगों को भारत रत्न का सम्मान दे सकती है।

क्या बोले पीएम नरेंद्र मोदी?

 

गत 22 जनवरी को अयोध्या में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के 12 दिन बाद लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देने की घोषणा की गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा कि, “भारत के विकास में हमारे दौर के सबसे सम्मानित नेताओं में से एक रहे आडवाणी जी का योगदान अविस्मरणीय है।

“उनका सफर जमीनी स्तर पर काम करने से शुरू होकर उप प्रधानमंत्री के रूप में देश की सेवा करने तक का रहा है। उन्होंने गृह मंत्री और सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में भी अपनी पहचान बनाई है। उनकी संसदीय यात्रा अनुकरणीय और समृद्ध नज़रिए से भरी रही है।”

पीएम मोदी ने लिखा है कि, “उन्होंने अपने जीवन के कई दशक लोगों की सेवा में गुज़ारे। पारदर्शिता और ईमानदारी के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता रही है। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए काम किया है। “उन्हें भारत रत्न देने का फ़ैसला मेरे लिए बेहद भावुक घड़ी है। मुझे उनके साथ काम करने और उनसे सीखने का कई बार मौक़े मिले है।”

आखिर कौन हैं लालकृष्ण आडवाणी?

 

लालकृष्ण आडवाणी अब 96 साल के हैं। वो भाजपा के उन चेहरों में शामिल हैं, जिन्होंने 1990 के दशक में श्रीराम मंदिर आंदोलन का नेतृत्व किया था। नब्बे के दशक में विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या, काशी और मथुरा के मंदिरों को ‘मुक्त करने का’ अभियान चलाया था और इसके अंतर्गत लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा की थी।

25 सितंबर से शुरू रथयात्रा 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचनी थी, हालांकि बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने समस्तीपुर जिले में 23 अक्टूबर को उन्हें गिरफ्तार कर लिया था।

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आडवाणी के ख़िलाफ़ मस्जिद गिराने की साज़िश का आपराधिक मुक़दमा भी चला था। वो फिलहाल भाजपा के मार्गदर्शक मंडल में हैं, लेकिन वो सार्वजनिक जीवन में अब ख़ास सक्रिय नहीं दिखते। पिछले दिनों अयोध्या में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम से पहले मंदिर ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने मीडिया से कहा था कि “आडवाणी एवं मुरली मनोहर जोशी को कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया है और उनकी उम्र को देखते हुए उनसे समारोह में न आने का आग्रह किया गया है, जिसे दोनों ने स्वीकार भी कर लिया है।”

लालकृष्ण आडवाणी आरएसएस से नज़दीकी:-

 

लालकृष्ण आडवाणी बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ जुड़े रहे हैं। एक बार राजस्थान के माउंट आबू में ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में आडवाणी ने कहा था, “मैं बचपन से जिस संगठन के साथ जुड़ा हूं उसका सम्मान करता हूँ और मुझे उस पर गर्व है और ये संगठन आरएसएस है।

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“मैंने आरएसएस से ही सीखा है कि हमें कभी भी गलत कामों को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। देशप्रेम और राष्ट्र के प्रति निष्ठा की सीख भी मुझे आरएसएस से ही मिली है।”

प्रधानमंत्री पद का था मौका, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के लिए छोड़ा रास्ता:-

 

वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी ने बीबीसी से कहा था कि, “राम मंदिर आंदोलन के दौरान देश में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय नेता और संघ परिवार का पूरा आशीर्वाद होने के बावजूद आडवाणी ने 1995 में वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताकर सबको हैरानी में डाल दिया था। त्रिवेदी ने कहा था, “उस वक़्त आडवाणी पीएम बन सकते थे, लेकिन उन्होंने कहा कि बीजेपी में वाजपेयी से बड़ा नेता कोई नहीं हैं। पचास साल तक वे वाजपेयी के साथ नंबर दो बने रहे।”

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“पचास साल से ज़्यादा के राजनीतिक जीवन के बावजूद आडवाणी पर कोई दाग नहीं रहा और जब 1996 के चुनावों से पहले कांग्रेस के नरसिंह राव ने विपक्ष के बड़े नेताओं को हवाला कांड में फंसाने की कोशिश की थी, तब आडवाणी ने सबसे पहले इस्तीफ़ा देकर कहा कि वे इस मामले में बेदाड़ निकलने से पहले चुनाव नहीं लड़ेंगे और 1996 के चुनाव के बाद वे मामले में बरी हो गए। ऐसी हिम्मत दिखाना सबके बश की बात नहीं हैं।”

पीएम नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी के रिश्ते:-

 

भाजपा में आडवाणी की भूमिका को लेकर बीबीसी पर मूल रूप से 8 नवंबर 2017 को प्रकाशित एक लेख के अंश:-

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कभी आडवाणी के काफ़ी क़रीबी हुआ करते थे, लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री उम्मीदवार के चयन के बाद से दोनों के रिश्तों में कड़वाहट आई है। एक ज़माने में भारतीय जनता पार्टी के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी की पूरे भारत में तूती बोला करती थी और उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना जाता था।

आडवाणी ने ही 1984 में दो सीटों पर सिमट गई। भारतीय जनता पार्टी को रसातल से निकाल कर पहले भारतीय राजनीति के केंद्र में पहुंचाया और फिर 1998 में पहली बार सत्ता का स्वाद चखाया।2004 और 2009 की लगातार दो चुनाव की हार के बाद ‘लॉ ऑफ़ डिमिनिशिंग रिटर्न्स’ का सिद्धांत आडवाणी पर भी लागू हुआ और एक ज़माने में उनकी छत्रछाया में पलने वाले नरेंद्र मोदी ने उनकी जगह ले ली थी।

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आडवाणी के आलोचक और आरएसएस पर किताब लिखने वाले एजी नूरानी कहते हैं कि, “1984 के चुनाव में जब बीजेपी को सिर्फ़ दो सीटें मिली थीं तो ये बहुत बौखलाए थे। उन्होंने ये तय किया कि पुराने वोट हासिल करने का सिर्फ़ एक ही तरीका है कि हिंदुत्व को दोबारा जगाया जाए। 1989 में बीजेपी का पालमपुर प्रस्ताव पास हुआ जिसमें आडवाणी ने खुल कर बताया कि मैं उम्मीद करता हूँ कि हमारी ये कोशिश वोटों में बदले।” उनके अनुसार, “1995 में उन्होंने महसूस किया कि देश उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाएगा। इसलिए उन्होंने वाजपेयी के लिए गद्दी छोड़ी दी थी। जिन्ना के बारे में जो उन्होंने बात की थी वो पाकिस्तानियों को ख़ुश करने के लिए नहीं थी, वो भारत में अपनी एक उदार छवि बनाना चाहते थे।”

वो कहते हैं कि, “लेकिन ऐसा करके वो ख़ुद अपने जाल में फंस गए। उन्होंने गुजरात दंगों के बाद जिन मोदी को बचाया उन्हीं मोदी ने ही उन्हें बाहर कर दिया। उनका ये हश्र हुआ कि न खुदा मिला ने विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे।” लेकिन भारतीय जनता पार्टी को नज़दीक से देखने वाले राम बहादुर राय का मानना है कि गुजरात दंगों के बाद आडवाणी ने नहीं बल्कि दूसरे लोगों ने मोदी को बचाया था। वो कहते हैं कि, “वाजपेयी चाहते थे कि नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें। उन्होंने एक बयान में राजधर्म की शिक्षा भी दी। लेकिन वाजपेयी को ठंडा करने और अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने के लिए जिन दो व्यक्तियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनके नाम थे अरुण जेटली और प्रमोद महाजन।

वाजपेयी जब दिल्ली से गोवा पहुंचे तो उनके विमान में ये दोनों लोग ही थे। आडवाणी तो थे ही नहीं।” “इन्हीं दो लोगों ने रास्ते में वाजपेयी को समझाया कि ये पार्टी के हित में नहीं है और पणजी आते – आते जैसा कि वाजपेयी का स्वभाव था, उन्होंने मान लिया। मेरा मानना है कि आडवाणी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो वाजपेयी को ये कहें कि आप ये करे या न करें।” नरेंद्र मोदी को बचाने में आडवाणी का सीधा हाथ भले ही न रहा हो, लेकिन इस बात से बहुत कम लोग गुरेज़ करेंगे कि कम से कम 2012 तक नरेंद्र मोदी, आडवाणी के लेफ़्टिनेंट हुआ करते थे।

लालकृष्ण आडवाणी का संक्षिप्त जीवन परिचय:-

 

लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर, 1927 को कराची में हुआ था। उनकी स्कूली पढ़ाई कराची में हुई। जिसके बाद हैदराबाद (वर्तमान में पाकिस्तान के सिंध में) के एक कॉलेज में पढ़ाई की थी। 1944 में उन्होंने कराची में अध्यापक के तौर पर नौकरी भी की और फिर विभाजन के बाद सितंबर 1947 में भारत आ गए। 1942 में वह बतौर स्वयंसेवक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े थे।

 

 

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भारत में भी वह आरएसएस में सक्रिय रहे और कुछ साल आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र में भी काम किया। 1970 में वह पहली बार राज्य सभा पहुंचे। 1972 में भारतीय जन संघ के अध्यक्ष चुने गए। 1975 में आपातकाल के दौरान वह जनसंघ के सदस्यों के साथ जेल में भी बंद रहे। मार्च 1977 से 1979 तक मोरारजी देसाई की सरकार में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे। साल 1990 में अडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक राम रथ यात्रा की शुरुआत की थी।

 

फिर, 1998 में वाजपेयी सरकार में गृहमंत्री और फिर उप-प्रधानमंत्री भी रहे। इसके बाद 2004 से 2009 तक लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। लालकृष्ण आडवाणी बीजेपी के संस्थापक सदस्य थे और तीन बार (1986 से 1990, 1993 से 1998 और 2004 से 2005) इसके अध्यक्ष भी रहे।

(सोर्स : बीबीसी न्यूज हिन्दी)

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