Thursday , 10 April 2025

मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं रणथंभौर के त्रिनेत्र गणेश

आपने भगवान महादेव के त्रिनेत्र मुखाकृति के दर्शन अवश्य किए होंगे परन्तु उनके पुत्र गणेश जी की त्रिनेत्र प्रतिमा वह भी पत्नियों रिद्धी-सिद्धी और पुत्रों शुभ-लाभ के साथ दर्शन शायद ही किए हों। जी हां, ऐसे त्रिनेत्र गणेश जी की मूर्ति के दर्शन के लिए रणथंभौर गणेश मन्दिर एक मात्र स्थान है। यह पूर्वी राजस्थान के सवाई माधोपुर में विश्व विख्यात रणथंभौर बाघ परियोजना के बीच सुरमय वादियों से घिरा प्राचीन मन्दिर है। सवाई माधोपुर से दिल्ली-मुम्बई रेलमार्ग सहित अन्य प्रमुख शहरों से रेल, सड़क तथा नजदीकी एयरपोर्ट जयपुर से जुड़ा हुआ है।

 

रेलवे स्टेशन से करीब 14 किलोमीटर दूर रणथंभौर दुर्ग तक जाने के लिए चौपहिया तथा दुपहिया वाहनों से पहुंचा जा सकता है। दुर्ग के गेट से मन्दिर तक पैदल ही जाना होता है। वृद्ध तथा असहाय लोगों के लिए पालकी की व्यवस्था है। प्रथम पूज्य के इस मन्दिर में प्रतिदिन सैंकड़ो श्रद्धालु पहुंचते है, इसके अलावा देशी-विदेशी मेहमान भी आते हैं। शादी – विवाह और अन्य मांगलिक अवसरों के प्रथम निमंत्रण पत्र तथा बुआई से पहले कृषकों द्वारा गणेश जी को न्योता दिए जाने की प्राचीन परम्परा आज भी निरन्तर जारी है।

 

 

Trinetra Ganesh of Ranthambore fulfills wishes

 

निमंत्रण पत्र के साथ 5 कंकर पूजकर घर ले जाना तथा कार्य संपन्न होने पर इन्हें वापस लौटाना तथा मन्दिर से बीनकर ले जाने वाले अनाज को बीज में मिलाकर बोना और समृद्धि तथा खुशहाली प्राप्त करना त्रिनेत्र गणेश का आशीष माना जाता है। प्रथम पूज्य को प्रथम निमंत्रण पर भेजने की परम्परा के चलते श्री-श्री1008 श्री गणेश की महाराज रणतभंवर के पत्ते पर विभिन्न भाषाओं वाले हजारों निमंत्रण पत्र डाक से पहुंचते हैं। भाद्रपद शुक्लचतुर्थी अर्थात गणेश चतुर्थी के अवसर पर लगने वाले मेले में लाखों श्रद्धालु पहुंचते है, इस कारण करीब 5 किलोमीटर अधिक पैदल चलना पड़ता है।

 

तृतीया से ही भक्तों के आने का सिलसिला शुरू हो जाता है, कनक डंडवत और गणेश के जयकारों से पूरा वातावरण भक्तीमय हो उठता है। गणपति की पूजा कर पठार पर घर बनाने, दाल-बाटी चूरमा बनाकर गणेश जी को भोग लगाना और प्रसादी पाना भी मान्यता का हिस्सा बन गया है। मन्दिर के बारे में अनेक किवदंतियां है, परन्तु यह र्निविवाद है कि ई. सन 944 से दुर्ग निर्माण से पहले इस मन्दिर का निर्माण किया गया था। किले पर मुस्लिमों के अनेक हमले हुए तथा किला खिलजी और मुगल शासकों के अधीन रहा किन्तु अपनी चमत्कारी शक्ति से यह आज भी उसी श्रद्धा और आस्था का केन्द्र बना हुआ है जितना चौहान वंश के समय में था।

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