चौथ का बरवाड़ा:- करक चतुर्थी अर्थात करवा चौथ का व्रत लगभग देशभर में मनाया जाता है। भारतवंशियों की भागीदारी से त्याग, आस्था, प्रेम और आपसी विश्वास का यह व्रत विश्व के कई देशों में पहंच चुका है। दाम्पत्य जीवन के इस सबसे खूबसूरत व्रत की शुरुआत राजा-रजवाड़ों के प्रदेश राजस्थान से हुई है। यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि राजस्थान की वीर जातियों ने हिंदू संस्कृति एवं सभ्यता को संवारने और समृद्ध करने में महती भूमिका निभाई है। इसी की एक कड़ी करक चतुर्दशी यानि करवा चौथ। आन-बान-शान के लिए मर-मिटने वाले राजस्थानी राजाओं ने विदेशी आक्रांताओं से कई जंग लड़ीं। उन्हें रोका, लोहे के चने चबवाएं, भारतीय वीरता और सभ्यता से परिचय कराया। मध्यकाल में लंबे संक्रांति दौर में कई वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए तो कई रानियों ने स्वयं अग्नि स्नान ‘जौहर‘ कर लिया। उनके त्याग और साहस के किस्सों से आज भी हर जानने-सुनने वाला रोमांचित हो उठता है। इन्हीं वीरों की भूमि राजस्थान में प्रेम और त्याग के कई किस्से लोग अब तक सुनते-सुनाते हैं। सूदूर फैले रेगिस्तान में धवल चांद-रातों में पनपते-पगते प्रेम की कई कहानियां यहां की रेत कणों पर बिखरी हैं, विद्यमान हैं।
करवा चौथ की शुरुआत राजस्थान में कब हुई यह जानना कठिन है लेकिन यह बहुत पुराना पर्व नहीं यह तय है। निश्चित ही मध्यकाल में लोक त्यौहार के रूप में हुई है। युद्ध के संक्रांति काल में स्त्रियों की अपने सुहाग की लंबी उम्र की चिंता ने इस व्रत को शुरू कराया। लगातार होने वाले युद्धों से सकुशल पति के लौट आने की मंशा ने ही इस व्रत को वहां लोकप्रिय बनाया। चौथ का बरवाड़ा (राजस्थान) में संभवतः सबसे पुराना या कहें पहला चौथ माता का मंदिर भी है। इसे राजा भीम सिंह चौहान ने बनवाया था। शनैः शनैः यह दाम्पत्य में प्रेम और प्रगाढ़ता लाने वाला यह व्रत मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पंजाब, दिल्ली और हरियाणा में मनाया जाने लगा। आज भी इन्हीं क्षेत्रों में इस व्रत का सर्वाधिक प्रभाव है। करवा चौथ की व्रत कथा की कहानियां भी शास्त्रोक्त न होकर लोक समाज से हैं। करवा चौथ भी इसी सम्मान का एक लोक त्योहार है। इसे विवाहिताएं पति की दीर्घायु, स्वास्थ्य और बलवृद्धि की कामना के साथ मनाती हैं।