Saturday , 30 November 2024

हर किसी के कम्प्यूटर की जासूसी करेगी सरकार, भाड़ में गया निजता का अधिकार

गृह मंत्रालय के इस आदेश में 10 एजेंसियों की सूची दी गई है जिन्हें कम्प्यूटर की निगरानी करने, उसमें झांकने, उसमें स्टोर डाटा, सूचनाएं और दस्तावेज़ आदि को हासिल करने, फोन या अन्य कम्प्यूटर स्रोत में जमा कोई भी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। जिन एजेंसियों को ये अधिकार दिए गए हैं, उनमें इंटेलिजेंस ब्यूरो (खुफिया विभाग), नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज (सीबीडीटी), डायरक्टेरेट ऑफ रेवन्यू इंटेलिजेंस (डीआरआई), सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन (सीबीआई), नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) कैबिनेट सेक्रेटेरिएट यानी (रॉ) और डायरेक्टरेट ऑफ सिग्नल इंजेटलिजेंस कमिश्मर ऑफ पुलिस के अलावा दिल्ली पुलिस आदि शामिल हैं। इस सूची देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत अब एक पुलिस स्टेट यानी ऐसा देश बन गया है जहां तानाशाही का राज और जो पुलिस और अन्य एजेंसियों द्वारा आम नागरिकों की जासूसी कराती है।

The government spy monitoring computer
सवाल है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से ऐन पहले ऐसे आदेश, वह भी जल्दबाज़ी में जारी करने की सरकार को क्या जरूरत थी? इस आदेश के जारी होने के समय को लेकर ही सबसे बड़ा सवाल है। पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर को छोड़ दें, मोटे तौर पर पूरे देश में शांति कायम है, हां बीच-बीच में सांप्रदायिक झड़पों और किसानों के आंदोलन की खबरें सामने आती रही हैं। तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि मोदी सरकार ने लगभग हर एजेंसी को ऐसे कड़े अधिकार दे दिए?
इसकी तीन वजहें हो सकती हैं। हो सकता है कि सरकार को ऐसी खुफिया रिपोर्ट मिली हो कि देश में बड़े पैमाने पर कोई गड़बड़ी फैलाने की साजिश की जा रही है और सरकार ने इसे रोकने के लिए यह कदम उठाया है। यह भी संभव है कि सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ धरपकड़ या क्रैकडाउन की तैयारी कर रही है। या फिर सरकार को ऐसा लगने लगा है कि एजंसियों द्वारा पहले से की जा रही निगरानी और जासूसी नाकाफी है और इसे और बढ़ाने की जरूरत है।
बहरहाल निगरानी और जासूसी को औपचारिक जामा पहनाने के पीछे मंशा यह भी हो सकती है कि सरकार ने पूर्व में जो भी ऑपरेशन किए हैं उन्हें कानूनी दायरे में ले आया जाए और एजंसियों के लिए एक सुरक्षा कवच भी बन जाए। ऐसा संभवता इसलिए भी किया गया है कि सरकार बदलने पर एजेंसियों को खुद को बचाने में मदद मिले।
यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि राज्यों और केंद्र दोनों के सचिवों को ऐसे आदेश देने का अधिकार है कि वे खास मामलों में या जिनमें जरूरत समझी जाए, उसमें निगरानी, जासूसी या डाटा आदि निकालने की इजाजत दे दें। लेकिन 20 दिसंबर को जारी गृह मंत्रालय के इस आदेश के बाद तो राज्य सरकारों के भी हौसले बढ़ेंगे और वे अपने राज्यों की पुलिस को भी ऐसे अधिकार दे सकती हैं। तो क्या पुलिस राज्य की सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ न अधिकारों का दुरुपयोग नहीं करेगी?
इस आदेश के बाद सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का क्या होगा जिसमें निजता को नागरकों का बुनियादी अधिकार करार दिया गया था?

सरकार के इस आदेश को लेकर प्रतिक्रियाएं आने लगी हैं। इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन ने शुक्रवार को ही इस आदेश को लेकर संशय जताया और सरकार से अपने फैसले पर फिर से विचार करने की अपील की। फाउंडेशन ने कहा कि अच्छा होता कि सरकार इस बारे में आम लोगों से चर्चा करती और पारदर्शी तरीके से निगरानी सुधार और डाटा सुरक्षा पर फैसला करती। फाउंडेशन ने कहा है कि अगर सरकार इस अपील पर ध्यान नहीं देती है तो वह अदालत का रुख करेगी।
फाउंडेशन ने कहा यह भी कहा है कि, “गृह मंत्रालय का आदेश टेलीफोन टैपिंग से कहीं आगे जाता दिखता है। इस आदेश में जो कुछ कहा गया है वह कहीं ज्यादा निजता का उल्लंघन है।”
दरअसल मोदी सरकार की समस्या ही यह रही है कि उसके कामकाज के तौर-तरीके बेहद अटपटे रहे हैं। यह सरकार बिना किसी सलाह-मशविरे या विमर्श के फैसले लेती है। अभी हाल ही में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था आरटीआई एक्ट में बदलाव करने से पहले केंद्रीय सूचना आयोग से सलाह-मशविरा करना जरूरी नहीं है।
ऐसे में वक्त आ गया है कि अब न्यायपालिका ही देश को एक पुलिस स्टेट बनने से बचाए!

(साभार : उत्तम सेनगुप्ता – navjivanindia.com)

 

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