जयपुर: राजस्थान के नाम में ही राज शामिल है। इस बार बात भी राज या रिवाज बदलने की ही हो रही है। मतदान खत्म होने के बाद इसका लगभग जवाब भी मिल गया है। राजस्थान में वोट प्रतिशत बढ़ने से भाजपा काफी खुश है तो कांग्रेस भी अंडर करंट की “गारंटी” से उत्साहित है। सबके अपने-अपने दावे हैं। हालांकि दोनों दलों को आठ दिन का इंतजार करना पड़ेगा। मारवाड़ में कहते हैं- ‘भूखौ तो धापियो ही पतीजै’ यानी भूखा तो पेट भरने के बाद ही संतुष्ट होता है। 3 दिसंबर को मतगणना के बाद दोनों दल में से किसी एक की सत्ता की “भूख” शांत हो पाएगी।
25 नवंबर को हुए मतदान से कई ट्रेंड समझ आ रहे हैं। हर बार की तुलना में इस बार का चुनाव बड़ा दिलचस्प और पेचीदा था। दिलचस्प इसलिए कि प्रदेश के इतिहास में जितने भी चुनाव हुए हैं, वो भाजपा-कांग्रेस या मुख्यमंत्री-पूर्व मुख्यमंत्री के बीच होते हैं, लेकिन इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अशोक गहलोत के बीच ही मुख्य मुकाबला रहा है। इस चुनाव में कुछ चीजें एकदम क्लियर हैं। इसे तिजारा और पोकरण सीट के मतदान प्रतिशत से समझ सकते हैं। यहां 80 प्रतिशत से अधिक मतदान से साफ है कि ध्रुवीकरण हुआ है।
दूसरा, बड़े नेताओं के सीटों पर वोटिंग प्रतिशत बढ़ने के भी 2 संकेत हैं। या तो इतना मतदान उन्हें हराने के लिए हुआ या जिताने के लिए। गहलोत की सरदारपुरा सीट पर मतदान 2.59 प्रतिशत तक घटा है। इसका असर जीत-हार के मार्जिन पर नजर आएगा। कांग्रेस नेता गोविंद सिंह डोटासरा, शांति धारीवाल, अशोक चांदना की सीटों पर मतदान के रुझान टक्कर वाले रहे हैं। यहां का परिणाम कुछ भी हो सकता है। भाजपा में भी राजेंद्र राठौड़, वासुदेव देवनानी, सतीश पूनिया और नरपत सिंह राजवी जैसे नेताओं के परिणाम भी स्पष्ट नहीं कहे जा सकते।
आखिर वोटिंग में हवा का रुख क्या रहा?
यदि राजस्थान के चुनाव को समझना है तो पहले प्रदेश के राजनीतिक गणित को समझना होगा। इलाकों के हिसाब से देखें तो पिछली बार कांग्रेस सरकार बनाने में पूर्वी राजस्थान का योगदान था। यहां 39 सीटों में से सिर्फ 4 भाजपा के पास आई थी। बाकी कांग्रेस और अन्य के पास थी। बसपा के विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए और निर्दलीयों ने कांग्रेस सरकार को समर्थन दे दिया। इस बार भाजपा को भी सबसे बड़ी उम्मीद पूर्वी राजस्थान से ही है। पिछली बार की तुलना में यहां मतदान भी चौंकाने वाला है। यहां दोपहर दो बजे तक ही यहां रिकार्ड तोड़ 40 फीसदी वोटिंग हो चुकी थी। स्वभाव और तासीर से समझ आ रहा है कि ये इलाका पिछले चुनाव की तरह चौंका सकता है। हालांकि 3 दिसम्बर को पता चल जाएगा कि ये वोट बैंक पिछली बार की तरह एक तरफा कांग्रेस की ओर गया या बंट गया।
इसको लेकर ग्राउंड पर हमें दो फीडबैक मिले। पहला ये कि सचिन पायलट के साथ जो अन्याय हुआ, उसे लेकर एक वर्ग के मन में बदले की ललक दिख रही थी। दूसरा ये कि भाजपा ने जबर्दस्ती राजेश पायलट और सचिन पायलट को लाकर गलत किया, इससे समाज में नाराजगी हो गई। 24 घंटे पहले भाजपा और कांग्रेस ने राजनीतिक फायदा लेने के लिए पायलट का इस्तेमाल तो कर लिया, लेकिन जनता किस पक्ष में फैसला देती है ये देखना होगा। हालांकि इतना तय है कि कांग्रेस यहां 2018 जैसा संभवत: प्रदर्शन नहीं कर पाए। पूर्व राजस्थान की ये सीटें बहुत कुछ तय करेगी। शेखावाटी को लेकर कहा जाता है कि यहां मतदाता बेहद समझदार है। कोई भी चुनाव हो यहां के मतदाता लहर या भावनाओं से ज्यादा प्रभावित नहीं होता। 2013 में विधानसभा चुनाव में मोदी लहर का असर चूरू को छोड़ बाकी जगहों पर इतना नहीं था।
शेखावाटी वो इलाका है, जहां से राष्ट्रपति, उप-प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और उप-राष्ट्रपति जैसे राजनीतिक पदों के लिए नेता निकले हैं। वर्तमान में इसी इलाके से कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा हैं, जो मोदी लहर के बावजूद जीते थे। इस बार कांग्रेस से ही भाजपा में आए पूर्व सांसद सुभाष महरिया ने मुकाबला कांटे की टक्कर में ला दिया है। यहां मतदान 2.08 प्रतिशत बढ़ने से कांटे की टक्कर की स्थिति है। नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ चुनाव लड़ने में माहिर माने जाते हैं, लेकिन यहां भी जीत का अंतर कम ही रहने वाला है, पिछली बार भी चूरू में राठौड़ 1850 वोट से जीत पाए थे।
शेखावाटी के तीन जिलों सीकर-चूरू और झुंझुनूं में विधानसभा की कुल 21 सीटें हैं। सभी का अपना गणित, लेकिन ये तय है कि हर बार कांग्रेस के पाले में रहने वाला शेखावाटी इस बार भाजपा की हवा से अछूता नहीं रहा है। हालांकि तीन सीटों पर अन्य दल और दो सीटों पर बागी भाजपा के लिए मुश्किल पैदा कर रहे हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इसी इलाके से आते हैं। मारवाड़ में शामिल जोधपुर, पाली, जालोर, सिरोही, जैसलमेर, बाड़मेर और नागौर की 43 सीटों पर इस बार मुकाबला फंस गया है। ये इलाका राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के रंग में इस बार ज्यादा ही रंगा नजर आ रहा है।
इससे भी खतरनाक स्थिति निर्दलीयों की बनी हुई है। यहां हालात काफी बदले हैं, लेकिन कुछ सीटों पर पहली बार रोचक स्थिति खड़ी हुई है। अभी कांग्रेस के पास 22 और भाजपा के पास 16 सीटे हैं। हवा के रुख के हिसाब से कांग्रेस की सीटों में ज्यादा बढ़ोतरी नहीं दिख रही है। शिव, पोकरण, गुढ़ामालानी, सूरसागर, नागौर, खींवसर, डीडवाना जैसी सीटों पर नतीजे देखने वाले होंगे। मारवाड़ की 43 सीटों में सबसे ज्यादा सीट जीतने वाली पार्टी सत्ता तक पहुंचती हैं। 2013 चुनाव में कांग्रेस इसमें 3 सीट ही जीत पाई थी। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 22 सीट जीतीं। बाड़मेर-जैसलमेर की 9 सीट में से 8 सीट कांग्रेस के खाते में गई थीं। इस चुनाव में बाड़मेर-जैसलमेर सीट पर कांग्रेस की संख्या घटने का अनुमान लगाया जा रहा है।
बीजेपी का दावा यहां 30+ सीटों का है। 2 सीटें अन्य के खाते में भी जा सकती हैं
इन सीटों पर कांग्रेस ने 7 विधायकों को रिपीट किया गया है। स्थानीय विधायकों को लेकर लोगों में गुस्सा कहीं न कहीं पिछड़ने की वजह हो सकती है। जोधपुर जिले में इस बार कांग्रेस को 3 से 4 सीट पर संतोष करना पड़ सकता है। 6 सीट बीजेपी और एक सीट आरएलपी के पास जा सकती है। पाली और सिरोही जिले में इस बार भी कांग्रेस के 13 में से नाममात्र की सीटें हासिल कर पाएगी। हालांकि भाजपा के गढ़ में सेंध लगाने के लिए गहलोत ने यहां अपने 3 खास लोगों को टिकट देकर चुनाव लड़ाया, लेकिन जो रुझान मिल रहा है उससे लग रहा है कि हार का ही अंतर कम ही रहे।
एक और खास बात इन इलाकों में वोटिंग का प्रतिशत कम रहा है। ये कांग्रेस के लिए ज्यादा खुशी की बात नहीं है, क्योंकि यहां भाजपा भारी मतों से जीतती आई है, ऐसे में हार का अंतर कम हो सकता है। जालौर जिला में भगवा का रंग नजर आ रहा है। नए जिले से कुछ उम्मीद है। नागौर जिले में आरएलपी ने कई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला बना रखा है। मकराना की एक सीट के अलावा राजनीतिक पंडित अभी कहीं पर दांव नहीं लगा रहे हैं।
कहा जाता है कि जो मेवाड़ को जीत लेता है, उसकी सरकार बनती है
हालांकि 2018 के चुनाव में यह बात बदल गई। मेवाड़-वागड़ की 28 सीटों में सर्वाधिक 14 भाजपा और 11 पर कांग्रेस जीती, लेकिन सरकार कांग्रेस की बनी। हालांकि यहां भाजपा पिछले चुनाव की तरह आगे रहने में भारी दिख रही है। गुलाबचंद कटारिया की कमी से उदयपुर में घमासान वाली स्थिति हो गई है, लेकिन बहुचर्चित कन्हैयालाल मामला इस इलाके को प्रभावित कर रहा है।।मेवाड़ में सबसे रोचक मुकाबला राजसमंद जिले के नाथद्वारा में कांग्रेस के सीपी जोशी और भाजपा के महाराणा प्रताप के वंशज विश्वराज सिंह मेवाड़ के बीच है। यहां मतदान 1.76 फीसदी बढ़ने से लग रहा है कि मुकाबला टक्कर का है। चित्तौड़गढ़ ऐसी सीट हैं, जहां के परिणाम कुछ भी हो सकते है। भाजपा के बागी विधायक चन्द्रभान सिंह आक्या निर्दलीय खड़े हैं, उन्होंने भैरोंसिंह शेखावत के दामाद राजवी को संकट में डाल दिया है।
बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ और उदयपुर जिले की आरक्षित सीटों पर बीएपी और बीटीपी ने भाजपा और कांग्रेस दोनों का खेल बिगाड़ दिया है। पिछले 4 चुनाव में सीएम फेस रहीं वसुंधरा राजे को लेकर लोगों के मन में जितने सवाल उठे होंगे, उतने ही शायद खुद राजे के मन में भी उठे होंगे। इस चुनाव में भाजपा ने उन्हें चेहरा नहीं बनाया। भाजपा सीएम फेस बनाए या न बनाए, इससे इस क्षेत्र के वोटर्स पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि ये क्षेत्र राजे का प्रभाव क्षेत्र है। वर्ष 2013 में भाजपा की आंधी चली थी, मोदी लहर और राजे फैक्टर दोनों सिर चढ़कर बोले थे। 2018 में खान घोटाले सहित अन्य भ्रष्टाचार के आरोप, उम्मीद जितनी भर्तियां नहीं निकलने व कोर्ट में अटकने पर युवा आक्रोश, खिलाफत में लगे नारों का असर यहां दिखा। इससे भाजपा को यहां नुकसान हुआ, लेकिन उनके गृह जिले की एक भी सीट को कांग्रेस छू नहीं पाई। इस चुनाव में आखिर में टिकट मिलने वाले यूडीएच मंत्री शांति धारीवाल और प्रहलाद गुंजल के कारण कोटा उत्तर, मंत्री प्रमोद भाया के कारण अंता, मंत्री अशोक चांदना और पूर्व मंत्री प्रभुलाल सैनी हिंडौली जैसी सीटों पर रोचक मुकाबला है।
ज्यादा या कम मतदान के मायने क्या है
पिछले चार चुनावों को देखें तो ज्यादा या कम वोटिंग के अपने मायने है। पिछले चुनावों के आंकड़ों के आधार पर अगर वोट प्रतिशत के नजरिए से देखें तो यदि 3 से 4 फीसदी तक मतदान बढ़ता है तो फायदा भाजपा को मिलता है। (कॉपी) वोट प्रतिशत एक प्रतिशत तक कम हुआ तो कांग्रेस सरकार बना लेती है। यह एक पैटर्न है, जो 1998 के चुनाव से देखने को मिल रहा है, इसलिए राजस्थान में वोटिंग का घटना या बढ़ना काफी हद तक परिणाम की दिशा तय कर देता है।